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In sîne herberge reit |
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maneger dem von herzen leit |
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was sîn langez ûz wesn. |
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nu was ouch Keye genesn |
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bî dem Plimizœl der tjoste: |
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der prüevete Gâwâns koste, |
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er sprach "mîns hêrren swâger Lôt, |
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von dem was uns dehein nôt |
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ebenhiuz noch sunderringes." |
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dô dâhter noch des dinges, |
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wand in Gâwân dort niht rach, |
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dâ im sîn zeswer arm zebrach. |
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"got mit den liuten wunder tuot. |
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wer gap Gâwân die frouwen luot?" |
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sus sprach Keye in sîme schimpf. |
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daz was gein friunde ein swach gelimpf. |
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der getriwe ist friundes êren vrô: |
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der ungetriwe wâfenô |
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rüefet, swenne ein liep geschiht |
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sînem friunde und er daz siht. |
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Gâwân pflac sælde und êre: |
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gert iemen fürbaz mêre, |
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war wil er mit gedanken? |
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sô sint die muotes kranken |
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gîtes unde hazzes vol. |
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sô tuot dem ellenthaften wol, |
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swâ sînes friundes prîs gestêt, |
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daz schande flühtec von im gêt. |
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Gâwân âne valschen haz |
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manlîcher triwen nie vergaz: |
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