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dô vriesch der künec von Zazamanc |
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daz die poynder wît unde lanc |
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wârn ze velde worden |
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al nâch rîters orden. |
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er huob och sich des endes dar |
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mit maneger banier lieht gevar. |
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ern kêrt sich niht an gâhez schehen: |
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müezeclîche er wolde ersehen |
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wiez ze bêder sît dâ wær getân. |
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sînen tepich leit man ûf den plân, |
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dâ sich die pônder wurren |
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unt diu ors von stichen kurren. |
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von knappen was umb in ein rinc, |
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dâ bî von swerten klingâ klinc. |
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wie si nâch prîse rungen, |
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der klingen alsus klungen! |
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von spern was grôz krachen dâ. |
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ern dorfte niemen vrâgen wâ. |
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poynder wârn sîn wende: |
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die worhten rîters hende. |
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diu rîterschaft sô nâhe was,
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daz die frouwen ab dem palas |
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wol sâhn der helde arbeit. |
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doch was der küneginne leit |
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daz sich der künec von Zazamanc |
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dâ mit den andern niht endranc. |
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si sprach "wê war ist er komn, |
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von dem ich wunder hân vernomn?" |
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Nu was ouch rois de Franze tôt, |
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des wîp in dicke in grôze nôt |
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